कानून का हाथ लंबा बताया गया था पर पहुंचता हमेशा कमजोरों तक ही हैं
कटनी | कहा जाता है कि कानून का हाथ लंबा होता है अर्थात अपराधी चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, कानून अंततः उसे पकड़ ही लेता है।भारतीय लोकतंत्र में भी यही आदर्श स्थापित किया गया है कि सभी नागरिक कानून के समक्ष समान हैं। संविधान में न्याय, स्वतंत्रता और समानता को आधार बनाया गया है। परंतु वास्तविक धरातल पर खड़े होकर देखें तो यह आदर्श कई बार खोखला प्रतीत होता है।कानून का हाथ भले ही लंबा हो, पर उसकी दिशा हमेशा कमजोर और गरीब वर्ग की ओर अधिक मुड़ती दिखाई देती है, जबकि धनवान, प्रभावशाली या सत्ता के करीब खड़े लोग कई बार आसानी से उसके दायरे से बाहर निकल जाते हैं। यह विरोधाभास सिर्फ व्यवस्था की कमजोरी नहीं, बल्कि सामाजिक असमानता, आर्थिक विषमता और प्रशासनिक ढांचों की खामियों का मिश्रित परिणाम है ।
*गरीब के लिए न्याय एक कठिन संघर्ष*
भारत का एक बड़ा हिस्सा आज भी आर्थिक रूप से कमजोर है। गांवों में बसे लोगों से लेकर शहरों की झुग्गियों में रहने वाले परिवारों तक, जब वे किसी अन्याय का सामना करते हैं और न्याय के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाते हैं, तो उनका संघर्ष यहीं से शुरू हो जाता है।सबसे पहली बाधा होती है पुलिस में शिकायत दर्ज कराना। जिन थानों में प्रभावशाली लोग बिना मिले आदेश दिलवा देते हैं, वहीं गरीब व्यक्ति की FIR अक्सर “देखेंगे”, “जांच करते हैं”, या “फिर कभी आना” जैसे शब्दों में खो जाती है। कई बार तो पीड़ित को ही बार-बार चक्कर लगाने पड़ते हैं, ताकि उसकी शिकायत को गंभीरता से सुना जाए। यह स्थिति उस व्यवस्था की तस्वीर है जिसमें कानून किताबों में तो बराबर है, लेकिन व्यवहार में असमान । जब कभी गरीब अपनी समस्या लेकर अदालत तक पहुंचता है, तो वहां भी उसके सामने लंबी तारीखें, महंगी कानूनी फीस, और जटिल प्रक्रिया खड़ी रहती है। उसे यह समझने में ही महीनों लग जाते हैं कि न्याय पाने का रास्ता कितना कठिन है। कई मामलों में तो पीड़ित पक्ष को यह कहकर समझा दिया जाता है कि “इतने बड़े आदमी से लड़ोगे तो क्या मिलेगा?” यह हतोत्साहन ही गरीब के न्याय की राह रोक देता है।
*अमीर और प्रभावशाली के लिए कानून का तेज़ी से चलना*
इसके विपरीत यदि कोई अमीर, प्रभावशाली, राजनीतिक या प्रशासनिक रसूख रखने वाला व्यक्ति पीड़ित होता है या शिकायत करता है, तो पूरी व्यवस्था कुछ ही घंटों में सक्रिय हो उठती है । FIR तुरंत दर्ज होती है, जांच अधिकारी फौरन मौके पर पहुंचते हैं, और कार्रवाई का पहिया तेजी से घूमने लगता है। कई उदाहरणों में देखा गया है कि अमीरों के मामूली विवाद भी पुलिस और प्रशासन की प्राथमिकता बन जाते हैं। मीडिया रिपोर्टिंग, राजनीतिक दबाव या आर्थिक प्रभाव से कानून के काम करने की गति बढ़ जाती है।कुछ मामलों में धनी लोग अपने वकीलों, संपर्कों और पैसों के बल पर कानून की धारा को अपनी सुविधा अनुसार मोड़ लेते हैं। जहां गरीब को एक FIR दर्ज कराने में हफ्ते लग जाते हैं, वहीं बड़े लोगों के मामलों में कुछ मिनटों में आदेश, कुछ घंटों में कार्रवाई, और कुछ दिनों में रिपोर्ट जैसी स्थितियाँ आम हैं। यह विडंबना इस बात को साबित करती है कि कानून का हाथ भले ही लंबा हो, पर उसकी लंबाई कुछ विशेष लोगों तक अधिक सहजता से पहुंचती है।
*न्याय व्यवस्था की जटिलताएँ*
यह कहना सही नहीं होगा कि पूरा तंत्र भ्रष्ट या पक्षपाती है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि न्याय व्यवस्था की गति और प्रक्रिया गरीब व्यक्ति को कमजोर बनाती है। अदालतों में लंबित मामलों की संख्या बहुत अधिक है। इससे गरीब को सालों इंतजार करना पड़ता है। कानूनी जानकारी की कमी उसे कई बार गलत फैसलों की ओर धकेल देती है। पैसे की तंगी के कारण वह अच्छे वकील तक नहीं पहुंच पाता। भाषा, प्रक्रिया और औपचारिकताएँ उसे मानसिक रूप से थका देती हैं।

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