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किसानों के लिए बनते हैं नियम-कानून, यूरिया के लिए रोना रोया जाता है पर दारू के लिए कभी नहीं, यह किसान की नहीं, बल्कि पूरे देश की विडंबना है कि जिस व्यक्ति के पसीने से यह धरती लहलहाती है, वही व्यक्ति हर बार व्यवस्था की मार झेलने को मजबूर होता है, किसान अन्नदाता या उपेक्षित वर्ग?

 किसानों के लिए बनते हैं नियम-कानून, यूरिया के लिए रोना रोया जाता है पर दारू के लिए कभी नहीं, यह किसान की नहीं, बल्कि पूरे देश की विडंबना है कि जिस व्यक्ति के पसीने से यह धरती लहलहाती है, वही व्यक्ति हर बार व्यवस्था की मार झेलने को मजबूर होता है, किसान अन्नदाता या उपेक्षित वर्ग?



दैनिक ताजा खबर के प्रधान संपादक राहुल पाण्डेय का संपादकीय लेख  |  भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। हमारी लगभग 65% आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खेती से जुड़ी है। लेकिन विडंबना यह है कि यही किसान अपनी जरूरत की चीजों के लिए सबसे अधिक संघर्ष करता है। खेत जोतने के लिए ट्रैक्टर चाहिए, फसल उगाने के लिए पानी चाहिए, और फसल को हरा-भरा रखने के लिए यूरिया या खाद चाहिए। परंतु इन सब चीजों तक उसकी पहुंच आसान नहीं है।यूरिया के लिए लंबी कतारें लगती हैं, कई बार गोदामों में स्टॉक खत्म बताया जाता है, और जिन दुकानों पर यूरिया मिलता है, वहां ‘ब्लैक मार्केटिंग’ का बोलबाला होता है। किसान को उसकी जरूरत की चीज भी दो गुनी कीमत पर खरीदनी पड़ती है।

*यूरिया खत्म होती है, पर दारू कभी नहीं*

अब सवाल उठता है यूरिया जैसी आवश्यक वस्तु खत्म क्यों हो जाती है, लेकिन शराब कभी खत्म नहीं होती? यह प्रश्न जितना सीधा दिखता है, उतना ही गहरा है। सच्चाई यह है कि सरकार और प्रशासन के लिए यूरिया घाटे का सौदा है, जबकि दारू मुनाफे का साधन। शराब पर राज्य सरकारों को भारी कर (एक्साइज ड्यूटी) मिलता है। कई राज्यों की आधी से अधिक आमदनी शराब बिक्री से आती है। यही कारण है कि शराब दुकानों में कभी “स्टॉक खत्म” का बोर्ड नहीं लगता। यूरिया किसान की जरूरत है इससे खेत हरे-भरे होते हैं, अन्न पैदा होता है। दारू समाज का जहर है इससे घर बर्बाद होते हैं, रिश्ते टूटते हैं, अपराध बढ़ते हैं।

फिर भी सरकार की नीतियां किस ओर झुकी हैं, यह किसी से छिपा नहीं।

*दारू का स्टॉक पहले से तैयार क्यों रहता है?*

हर त्योहार, चुनाव या अवसर से पहले सरकार शराब के स्टॉक को सुनिश्चित करती है। गोदामों में महीनों पहले शराब की बोतलें जमा कर दी जाती हैं। जबकि किसान की जरूरत की यूरिया के लिए कोई “पूर्व योजना” नहीं बनती। जब मांग बढ़ती है, तब हाहाकार मचता है। अधिकारी फाइलें घुमाते रहते हैं, और किसान यूरिया के लिए लाइन में खड़ा होकर अपना समय और सम्मान दोनों गंवाता है। यह फर्क इसलिए है क्योंकि शराब से राजस्व आता है, यूरिया पर सरकार सब्सिडी देती है। यानी एक व्यवस्था मुनाफे के लिए चलती है, और दूसरी सिर्फ किसानों के हित के लिए जिसे “खर्च” समझा जाता है।

*प्रशासनिक उदासीनता और भ्रष्ट तंत्र*

किसान यूरिया के लिए सरकारी गोदामों के चक्कर काटता है, लेकिन हर जगह एक ही जवाब मिलता है “स्टॉक खत्म है।” दूसरी ओर, जिनके पास पैसे और पहुंच है, उनके लिए वही यूरिया उपलब्ध हो जाती है। यह दिखाता है कि समस्या केवल आपूर्ति की नहीं, बल्कि वितरण की है। भ्रष्टाचार और राजनीति ने कृषि क्षेत्र को अंदर से खोखला कर दिया है। अधिकारी और माफिया मिलकर यूरिया का कृत्रिम संकट पैदा करते हैं, जिससे ब्लैक मार्केटिंग हो सके। किसान को 300 रुपये की बोरी 600 रुपये में बेच दी जाती है। जबकि शराब पर प्रशासन इतना सक्रिय है कि हर गांव, हर कस्बे में दुकान खोलने की योजना पहले से तैयार रहती है। वहां न कोई लाइन लगाता है, न कोई कमी होती है।

*नीतियों का असंतुलन और किसान की उपेक्षा*

किसानों के लिए बनाए गए नियम-कानून हमेशा बोझ बन जाते हैं। बिजली बिल, सिंचाई कर, खाद सब्सिडी, फसल बीमा  हर जगह जटिल प्रक्रियाएं और शर्तें हैं। लेकिन दारू की दुकान खोलने के लिए सबकुछ आसान। हर साल लाइसेंस फीस बढ़ाई जाती है, फिर भी दुकानों की संख्या घटती नहीं।

*किसान की विडंबना*

किसान सुबह से शाम तक खेत में पसीना बहाता है। उसे उम्मीद होती है कि उसकी मेहनत का फल उसे मिलेगा, पर हकीकत कुछ और होती है। जब बारिश नहीं होती, तो बीज सूख जाते हैं। जब फसल तैयार होती है, तो बाजार में उचित दाम नहीं मिलता। और जब फसल को बचाने के लिए यूरिया चाहिए, तो वह भी नहीं मिलती। किसान की विडंबना यही है कि उसकी मेहनत पर पूरी व्यवस्था टिकी है, लेकिन उसे सम्मान या सुविधा कुछ नहीं मिलती। वही किसान जिसने खेत में अन्न उगाया, शाम को उसी खेत के पास से गुजरते हुए शराब के ठेके के सामने युवाओं को नशे में डूबा देखता है। यह दृश्य उसके दिल को चुभता है क्योंकि जो धन दारू में बहाया जा रहा है, वह उसी किसान की जेब से अप्रत्यक्ष रूप से निकल रहा है।

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