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लोहगड़िया समुदाय के लोग ठंडी गर्मी में रहते हैं तंबू बनाकर हर विषम परिस्थितियों का करते हैं अकेले सामना इतनी तेज धूप में पोड़ी कला बी खिरवा में रहते हैं आम के पेड़ो के नीचे व्यवसाय की दृष्टि से जगह - जगह घूमकर करते हैं अपना जीवनयापन आम नागरिको को इनके कठिन परिश्रम से लेना चाहिए सीख

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ढीमरखेड़ा  |  भारत विविधताओं से भरा देश है। यहां विभिन्न जातियाँ, समुदाय और परंपराएँ सह - अस्तित्व में रहती हैं। इन समुदायों में एक ऐसा समूह भी है, जो सुविधाओं से कोसों दूर रहकर भी आत्मनिर्भरता, परिश्रम और धैर्य की मिसाल पेश करता है वह है लोहगड़िया समुदाय। यह समुदाय आज भी तंबुओं में रहकर, धूप, गर्मी, सर्दी और बरसात जैसी विषम परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करता है। वे आम के पेड़ों की छांव में अपने पारंपरिक व्यवसाय को जीवित रखते हुए, जगह-जगह घूमकर जीवनयापन करते हैं। उनके संघर्ष, साहस और परिश्रम से हर आम नागरिक को प्रेरणा लेनी चाहिए। लोहगड़िया समुदाय पारंपरिक रूप से लोहे से बने औजारों, कृषि उपकरणों और उपयोगी वस्तुओं के निर्माण में पारंगत होता है। इनकी पहचान एक घुमंतु और मेहनतकश जाति के रूप में होती है। मुख्य रूप से ये समुदाय बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे राज्यों में फैला हुआ है। इनका जीवन हमेशा से प्रकृति के साथ तालमेल बनाते हुए बीता है। इनकी भाषा क्षेत्रीय बोली होती है, और वे बहुधा मुख्यधारा की शिक्षा, स्वास्थ्य और आवासीय योजनाओं से वंचित रहते हैं। फिर भी, ये लोग आत्मसम्मान के साथ जीते हैं और मेहनत करके रोटी कमाते हैं।लोहगड़िया समुदाय का सबसे प्रमुख लक्षण यह है कि वे स्थायी निवास की अपेक्षा तंबुओं में रहना पसंद करते हैं। इनके तंबू बांस, कपड़े, तिरपाल या प्लास्टिक से बनाए जाते हैं। हर मौसम में यही उनका घर होता है गर्मी में तपता, सर्दी में ठिठुरता और बारिश में टपकता । गर्मी के दिनों में जब पारा 45 डिग्री के पार चला जाता है, तब भी ये लोग बिना पंखा, कूलर या एसी के आम के पेड़ों की छांव में अपने तंबू तानकर रहते हैं। धूप में काम करना, आग की भट्ठी जलाकर औजार बनाना उनके लिए रोज़मर्रा की बात होती है।

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