शराब की दुकानें खोल दी जाएं तो सबसे पहले वही लोग दिखेंगे जिनके पास खाने के पैसे तक नहीं हैं
कटनी | समाज का यह विडंबनापूर्ण दृश्य किसी फ़िल्मी कहानी का हिस्सा नहीं, बल्कि हमारे आसपास रोज़ दिखाई देने वाली कड़वी हकीकत है। सरकार जब भी शराब की दुकानें खोलने का निर्णय लेती है, तो सुबह - सुबह दुकानों के बाहर जो भीड़ सबसे पहले नज़र आती है, उसमें बड़ी संख्या उन्हीं लोगों की होती है जो रोज़ के खाने के लिए भी संघर्ष करते हैं। गरीब मजदूर, दिहाड़ी पर काम करने वाले, आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवारों के सदस्य ये सभी सबसे पहले लाइन में दिखाई देते हैं।
*गरीबी का दंश और नशे का आकर्षण*
कुछ लोग इसे केवल ‘व्यक्तिगत कमजोरी’ कहकर टाल देते हैं, पर वास्तविकता कहीं अधिक जटिल होती है। गरीबी केवल पैसे की कमी नहीं है; यह सामाजिक तनाव, मानसिक दबाव, भविष्य को लेकर अनिश्चितता और हर दिन की जद्दोजहद से उपजने वाली हताशा का नाम भी है। ऐसे में कई लोग शराब में ‘क्षणिक राहत’ ढूँढते हैं। उन्हें लगता है कि कुछ देर के नशे में रहने से दुख कम हो जाएँगे, समस्याएँ हल्की पड़ जाएँगी। यही सोच धीरे-धीरे उन्हें इस दुष्चक्र में फँसा देती है, जहाँ से बाहर निकलना आसान नहीं होता। दिहाड़ी मजदूर अक्सर सुबह काम पर निकलते हैं, दिनभर पसीना बहाते हैं और शाम को रोटी-कपड़ा जैसे बुनियादी ज़रूरतों से पहले शराब को प्राथमिकता दे बैठते हैं। यह न तो केवल उनकी गलती है, न ही यह केवल अनपढ़ता की समस्या है। यह आर्थिक असमानता, सामाजिक तिरस्कार और मानसिक तनाव का सम्मिलित परिणाम है।
*नशा- व्यवस्था की कमज़ोरियों का आईना*
किसी समाज में शराब की दुकानों पर गरीब वर्ग की भीड़ इस बात का संकेत है कि व्यवस्था लोगों को वह सुरक्षा नहीं दे पा रही जिसकी उन्हें सबसे अधिक आवश्यकता है। यदि किसी व्यक्ति के पास आगे बढ़ने, कमाने, सुरक्षित जीवन पाने, तनाव कम करने या मनोरंजन के बेहतर विकल्प हों तो वह नशे की ओर आकर्षित नहीं होगा। हमारे समाज में मनोरंजन के विकल्प सीमित हैं, मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता लगभग न के बराबर है और रोजगार की स्थिति अत्यंत अस्थिर है। जब जीवन में कोई सुरक्षित आधार ही न हो, तो कमजोर व्यक्ति का नशे की ओर झुकना एक स्वाभाविक परिणाम बन जाता है।
*शराब सरकारों के लिए राजस्व, गरीबों के लिए बर्बादी*
यह भी एक बड़ा विरोधाभास है कि सरकारें शराब पर प्रतिबंध लगाने की बात भले करती हों, पर वास्तविकता यह है कि शराब सबसे बड़ी राजस्व-स्रोतों में से एक है। सरकारें जानती हैं कि शराब की खपत अधिकतर गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों से होती है, फिर भी राजस्व की लालच में दुकानों को बढ़ावा दिया जाता है। इससे दोहरा नुकसान होता है समाज में अपराध बढ़ता है, गरीबी गहराती है और परिवार टूटते हैं। गरीब आदमी के लिए शराब केवल एक नशा नहीं, बल्कि कर्ज़, हिंसा, बीमारी और पारिवारिक कलह की जड़ बन जाती है। उसकी कमाई पहले से ही कम होती है, ऊपर से शराब की लत उसके बजट को पूरी तरह पटरी से उतार देती है। घर में बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है, भोजन की कमी होती है, पत्नी और बच्चों पर हिंसा बढ़ती है, और आर्थिक अस्थिरता हमेशा बनी रहती है।

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