गरीबी नहीं, लूट की आदत बड़ी समस्या है, जब तक यह लूट की आदत खत्म नहीं होगी, तब तक हर नई योजना पुराने जाल में फंसी रहेगी
गरीबी नहीं, लूट की आदत बड़ी समस्या है, जब तक यह लूट की आदत खत्म नहीं होगी, तब तक हर नई योजना पुराने जाल में फंसी रहेगी
दैनिक ताजा खबर के प्रधान संपादक राहुल पाण्डेय का संपादकीय लेख । भारत एक ऐसा देश है जहाँ हर पाँच साल में चुनाव के समय “गरीबी हटाओ” का नारा गूंजता है। हर सरकार यह दावा करती है कि वह गरीबों के उत्थान के लिए काम कर रही है, लेकिन आज़ादी के 75 साल बाद भी सच्चाई यह है कि गरीबी कम होने के बजाय “गरीबों के नाम पर लूट” बढ़ती जा रही है। असली समस्या गरीबी नहीं, बल्कि व्यवस्था में बैठी लूट की आदत है जो हर योजना, हर राहत पैकेज और हर कल्याणकारी नीति को अपने निजी हितों की थैली में डाल लेती है।
*गरीबी के नाम पर राजनीति और योजनाओं की बरसात*
हर सरकार गरीबों के नाम पर योजनाओं की झड़ी लगाती है प्रधानमंत्री आवास योजना, मनरेगा, संबल योजना, जनधन, उज्जवला, आयुष्मान भारत जैसी तमाम योजनाएँ गरीबों को ऊपर उठाने के लिए बनीं। कागज़ों पर ये योजनाएँ बहुत आकर्षक दिखती हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई बिल्कुल उलट होती है। एक गरीब किसान को जब तक योजना की जानकारी मिलती है, तब तक उसका हक़ किसी और की जेब में पहुँच चुका होता है। राशन कार्ड से लेकर आवास योजना तक, हर जगह बिचौलियों और अफसरशाही की लंबी चेन खड़ी होती है। योजना गरीबों के नाम पर बनती है, लेकिन लाभ उठाते हैं वही लोग जिनके पास पहले से सब कुछ है ज़मीन, पैसा और पहुँच।
*व्यवस्था में फैली लूट की मानसिकता*
समस्या यह नहीं कि गरीब मेहनती नहीं है या उसके पास अवसर नहीं हैं। असली समस्या यह है कि हमारे सिस्टम में “लूट की मानसिकता” घर कर गई है।
ग्राम पंचायत से लेकर मंत्रालय तक, हर स्तर पर ऐसे लोग बैठे हैं जो गरीब के हिस्से का निवाला खुद खा जाते हैं। गरीब के नाम से अनाज आता है, लेकिन डीलर तौल में कमी कर देता है। जिनके पास पहले से पक्के घर हैं, वे फर्जी दस्तावेज़ लगाकर प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ ले लेते हैं। मजदूरों के नाम से फर्जी हाज़िरी भरकर अधिकारियों और सरपंचों की जेबें भर जाती हैं। आयुष्मान कार्ड पर बड़े अस्पताल करोड़ों के फर्जी बिल बनाते हैं, जबकि असली गरीब अस्पताल के दरवाज़े पर मर जाता है। यह लूट की आदत केवल सरकारी कर्मचारियों या नेताओं तक सीमित नहीं है। समाज में भी भ्रष्टाचार को सामान्य समझ लिया गया है। कोई भी व्यक्ति जब अवसर पाता है, तो वह सोचता है कि “अगर सब खा रहे हैं, तो मैं क्यों पीछे रहूँ?” यही सोच हमारी नैतिकता को खोखला कर रही है।
*गरीबी की जड़ें और लूट का पोषण*
गरीबी की असली जड़ यह नहीं कि हमारे पास संसाधन कम हैं, बल्कि यह कि जो संसाधन हैं, उनका वितरण ईमानदारी से नहीं होता । भारत के पास कृषि भूमि, उद्योग, श्रमशक्ति, तकनीक सब कुछ है लेकिन नीतियों का लाभ ऊपर तक सीमित है। लूट की इस आदत ने गरीब को और भी असहाय बना दिया है। जब कोई गरीब देखता है कि उसका हक़ किसी और की जेब में जा रहा है, तो उसका सिस्टम से भरोसा उठ जाता है। वह सोचता है कि मेहनत करने से कुछ नहीं होगा, सब कुछ रिश्वत या सिफारिश से ही चलता है। यह सोच समाज को भीतर से कमजोर कर देती है।
*ईमानदारी की जगह दिखावे की संस्कृति*
आज समाज में ईमानदारी मज़ाक बन गई है। जो व्यक्ति नियमों का पालन करता है, उसे सीधा-सादा कहकर कमज़ोर माना जाता है, जबकि जो चोरी, फर्जीवाड़ा या घूसखोरी करता है, वह चालाक कहलाता है। यह मानसिकता सबसे खतरनाक है। क्योंकि यही मानसिकता लूट की आदत को सामान्य बनाती है।जब तक समाज ईमानदारी को सम्मान और लूट को शर्म की बात नहीं मानेगा, तब तक कोई भी सरकार गरीबी खत्म नहीं कर सकती ।

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