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भाजपा में योग्य लोगों को रखा जाता हैं पीछे, पार्टी के कई वरिष्ठ कार्यकर्ताओ को कोई महत्व नहीं, बड़े से बड़ा नेता अपने पदाधिकारियों की घोषणा करने में भयभीत कही कोई पार्टी का नेता नाराज न हों जाए काम तो किरदार से किया जाता है साहब भयभीत होकर नही बुराई उसी की ज्यादा होगी जो योग्य होगा , राजनेता एक दूसरे के गुप्त मित्र होते हैं जबकि कार्यकर्ता एक दूसरे के खुले शत्रु, भाजपा में योग्य कार्यकर्ताओं की अनदेखी और राजनीति का विरोधाभास

 भाजपा में योग्य लोगों को रखा जाता हैं पीछे, पार्टी के कई वरिष्ठ कार्यकर्ताओ को कोई महत्व नहीं, बड़े से बड़ा नेता अपने पदाधिकारियों की घोषणा करने में भयभीत कही कोई पार्टी का नेता नाराज न हों जाए काम तो किरदार से किया जाता है साहब भयभीत होकर नही बुराई उसी की ज्यादा होगी जो योग्य होगा , राजनेता एक दूसरे के गुप्त मित्र होते हैं जबकि कार्यकर्ता एक दूसरे के खुले शत्रु, भाजपा में योग्य कार्यकर्ताओं की अनदेखी और राजनीति का विरोधाभास



ढीमरखेड़ा |  भारतीय राजनीति में संगठन और विचारधारा दोनों की भूमिका अहम रही है। भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) जैसे बड़े दल का विस्तार लाखों कार्यकर्ताओं और हजारों नेताओं की सक्रिय भागीदारी से हुआ। लेकिन विडंबना यह है कि पार्टी की मजबूती में सबसे अधिक योगदान देने वाले जमीनी कार्यकर्ता और योग्य लोग अक्सर हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं। वहीं ऊपरी स्तर पर नेता अपनी रणनीतियों, समझौतों और गुप्त मित्रताओं के सहारे सत्ता और पद पर काबिज रहते हैं। भाजपा की पहचान ही संगठन आधारित पार्टी के रूप में रही है। बूथ स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कार्यकर्ता ही इसकी रीढ़ माने जाते हैं। नारे लगाना, जनसंपर्क करना, चुनाव प्रबंधन करना, घर-घर जाकर प्रचार करना, विरोध का सामना करना ये सब जिम्मेदारियाँ कार्यकर्ता उठाते हैं। लेकिन जैसे ही चुनाव खत्म होते हैं और सत्ता की बारी आती है, वही कार्यकर्ता दरकिनार कर दिए जाते हैं। पद बाँटने का खेल नेताओं तक सीमित रह जाता है।

 *योग्य लोगों को पीछे रखने की प्रवृत्ति*

अक्सर देखा गया है कि जो कार्यकर्ता निस्वार्थ भाव से काम करते हैं, विचारधारा के लिए बलिदान देते हैं, उन्हें महत्व नहीं मिलता। कारण साफ है वे नेताओं के तलवे नहीं चाटते। वे सत्ता के लालच से ऊपर काम करते हैं। वे ईमानदार और सिद्धांतवादी होते हैं। नेताओं को ऐसे लोग खतरनाक लगते हैं क्योंकि वे चमचागिरी नहीं करते, बल्कि सच बोलने की हिम्मत रखते हैं। नतीजतन, उन्हें पीछे धकेल दिया जाता है।

*वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का महत्वहीन होना*

भाजपा समेत अन्य दलों में भी यह परंपरा बन चुकी है कि जैसे ही कोई नेता बड़ा हो जाता है, वह अपने साथियों को भूल जाता है। कई वरिष्ठ कार्यकर्ता जिन्होंने दशकों तक पार्टी के लिए मेहनत की, आज हाशिये पर हैं। उन्हें न तो पद मिलता है और न ही सम्मान। उल्टा नए-नए चमकते चेहरे, जो केवल तात्कालिक लाभ पहुँचाते हैं, वे बड़े पद पा जाते हैं।

*नेताओं में भय और गुटबाज़ी*

राजनीति में पद की घोषणा करना भी अब जोखिम भरा माना जाने लगा है। बड़ा नेता इसलिए भयभीत रहता है कि कहीं किसी गुट का दूसरा नेता नाराज़ न हो जाए। इसीलिए कई बार महत्वपूर्ण नियुक्तियाँ लंबित रहती हैं। डर और गुटबाज़ी का यह माहौल योग्य कार्यकर्ताओं के लिए घातक है।

 *काम किरदार से होता है, भयभीत होकर नहीं*

कोई भी संगठन तभी मजबूत होता है जब उसका नेतृत्व निर्भीक होकर निर्णय ले। लेकिन यदि हर निर्णय केवल “कौन नाराज़ होगा” के डर से लिया जाए तो संगठन खोखला हो जाता है। राजनीति का यही दुर्भाग्य है कि आज किरदार से अधिक महत्व ‘खुशामद’ और ‘संबंध’ को दिया जाने लगा है।

*योग्य व्यक्ति की बुराई ज्यादा क्यों होती है?*

योग्य व्यक्ति हमेशा सच्चाई बोलता है, तर्क देता है और गलत को गलत कहने से नहीं डरता। यह गुण नेताओं के लिए खतरे की घंटी बन जाता है। उन्हें लगता है कि यदि ऐसे योग्य लोग ऊपर आएंगे तो उनके भ्रष्ट आचरण और गुटबाज़ी पर सवाल उठेंगे। इसलिए ऐसे लोगों को दबाने, बदनाम करने या किनारे करने का खेल रचा जाता है।

 *कार्यकर्ता खुले शत्रु क्यों होते हैं?*

कार्यकर्ता सीमित संसाधनों और स्थानीय राजनीति में जीता है। वहाँ ईर्ष्या, वर्चस्व की लड़ाई और छोटे-छोटे लाभ के लिए संघर्ष होता है। बूथ अध्यक्ष चाहता है कि उसकी ही बात सुनी जाए। मंडल स्तर पर पद की होड़ रहती है। जिले में एक कार्यकर्ता दूसरे को नीचा दिखाने में लगा रहता है। यानी कार्यकर्ता खुले तौर पर एक-दूसरे को शत्रु मानते हैं क्योंकि उनके बीच गुप्त समझौते का कोई स्थान नहीं होता।

 *लोकतंत्र और संगठन पर असर*

जब योग्य लोगों को किनारे किया जाता है और गुप्त मित्रता व गुटबाज़ी हावी होती है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है। जनता को सच्चे प्रतिनिधि नहीं मिलते। संगठन में निष्ठा रखने वाले कार्यकर्ता हताश हो जाते हैं।भ्रष्टाचार और परिवारवाद बढ़ता है।राजनीति सेवा नहीं, बल्कि सौदेबाजी का खेल बन जाती है।

टिप्पणियाँ

  1. राजनीति की परिभाषा ही यही है ,यहां काबिलियत नही टांग खींच कर आगे आया जाता है,

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  2. सच है सच को दबाया नहीं जा सकता है

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