सरकारें बदलती रहती हैं पर किसान की हालत वही रहती हैं, वादा सब करते हैं निभाता कोई नहीं
कटनी | भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, लेकिन यह कहना जितना आसान है, वास्तविकता उतनी ही कटु है।यहाँ सरकारें बदलती रहती हैं, नेता बदलते रहते हैं, सत्ता की कुर्सियाँ बदलती रहती हैं, लेकिन नहीं बदलती तो किसान की किस्मत। चुनाव आते हैं तो हर दल किसानों के खेतों में उतर जाता है, किसी को फसल बीमा याद आता है, किसी को समर्थन मूल्य, किसी को सिंचाई और कर्जमाफी की फाइलें । पर जैसे ही वोटों की गाड़ी मंज़िल तक पहुँचती है वही पुरानी कहानी, वही अधूरी बातें और वही टूटी उम्मीदें। आज हालात यह हैं कि वादा सब करते हैं, निभाता कोई नहीं। चुनावी प्रचार में जो घोषणाएँ आसमान को छूती दिखती हैं, वही सत्ता आने के बाद फाइलों में दबी रह जाती हैं।किसानों को दिए जाने वाले राहत पैकेज, बोनस, सब्सिडी, मौसम बीमा सबका हश्र कागज पर लिखे उन सपनों जैसा होता है जो कभी सच नहीं होते। देश का अन्नदाता आज भी बारिश के भरोसे है, महँगाई की मार झेलता है, और बिचौलियों के सहारे अपनी उपज बेचने को मजबूर है।
*वोटों का खेल सेवा नहीं, सत्ता से प्यार*
राजनीति का चरित्र धीरे-धीरे बदलकर एक व्यावसायिक सौदेबाज़ी में तब्दील हो गया है। यहां हर दिल में वोटों का व्यापार है सेवा का भाव नहीं। आज नेता जनता के बीच जाते हैं तो वादों की टोकरी लेकर, पर उन वादों में सच्चाई की मात्रा कितनी है, यह जनता अच्छी तरह जानती है। जिसे जितना बड़ा झूठ बोलना आता है, उसे उतनी बड़ी भीड़ मिल जाती है। जो जनता को झूठे सपने दिखा दे, हवा में महल खड़े कर दे, वही ताज पहनने का हकदार बन जाता है। लोकतंत्र का यह दर्दनाक हास्य है कि असल सेवा करने वाला व्यक्ति भीड़ में दब जाता है और सपने बेचने वाला नेता बन जाता है। यहाँ सत्ता एक साधन नहीं, बल्कि लक्ष्य बन चुकी है। नेता किसान के घर जाकर हाथ तो मिलाते हैं, पर किसान के जीवन की समस्याओं को समझने का समय शायद ही किसी के पास होता हो। घोषणा-पत्रों में किसानों के नाम पर पन्ने भरे जाते हैं, मगर किसान के हिस्से में पहुँचता है तो बस आश्वासन, भाषण और खोखली नीतियाँ।
*अफसरशाही किताबों में स्वतंत्रता, जमीन पर बेड़ियाँ*
जो अफसर वर्षों की मेहनत के बाद प्रशासनिक कुर्सियाँ पाते हैं, वे कभी स्वतंत्रता, निष्ठा और ईमानदारी की किताबें पढ़कर उनमें उतरे सिद्धांतों से प्रभावित होते थे। पर जैसे ही वे सिस्टम का हिस्सा बनते हैं, भ्रष्टाचार की हवा मानो उनके विचारों को जंग लगा देती है। वे भी पैसों और शक्तियों के गुलाम बन जाते हैं।आज हालात यह हैं कि किसी किसान को मुआवजा चाहिए, तो उसे पटवारी और तहसील के चक्कर काटने पड़ते हैं। सिंचाई की लाइन चाहिए तो अधिकारी देखेंगे कि इसमें क्या लाभ है। बिजली संबंधी समस्या हो तो अधिकारी फाइल को तब तक घुमाते रहते हैं जब तक ‘प्रक्रिया’ के नाम पर पैसा न मिल जाए।जहां अफसर जनता के सेवक होने चाहिए थे, वहां वे भी सत्ता का ही अंग बन चुके हैं। किसानों की समस्या सुनने की बजाय वे उन नेताओं के हिसाब से चलते हैं जिनसे उनकी पोस्टिंग, प्रमोशन और पद की सुरक्षा जुड़ी होती है। नतीजा यह होता है कि किसान का कष्ट किसी की प्राथमिकता नहीं बनता।

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