मुफ़्त की योजनाएँ और बढ़ता कर्ज़, लाड़ली बहना योजना की कसक किसानों पर पड़ने वाला असर
कटनी | भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में चुनावी राजनीति का एक बड़ा आधार जनता को तात्कालिक राहत देने वाली योजनाएँ रही हैं। किसी भी सरकार का यह दायित्व होता है कि वह समाज के कमजोर वर्गों को सहायता प्रदान करे, उन्हें आर्थिक रूप से खड़ा होने का अवसर दे और जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करे। लेकिन जब इसी सहायता का रूप बदलकर केवल “मुफ़्त की संस्कृति” बन जाती है, तो इसका प्रभाव शासन, अर्थव्यवस्था और समाज तीनों पर पड़ता है। विदित है कि लाड़ली बहना योजना एक बड़ा राजनीतिक और आर्थिक मुद्दा बन चुकी है। इस योजना ने तमाम महिलाओं को आर्थिक लाभ तो दिया, पर सरकार की वित्तीय स्थिति पर इसका बड़ा भार भी पड़ा है।बढ़ते कर्ज़, घटते राजस्व और राजनीतिक दबावों ने ऐसी स्थिति बना दी है कि खुद मुख्यमंत्री डॉक्टर मोहन यादव तक को सार्वजनिक मंचों पर आर्थिक संकट की बात स्वीकार करनी पड़ी। यही वह बिंदु है जहाँ मुफ्त की योजनाओं का वास्तविक परिणाम सामने आता है सरकार भारी कर्ज़ में, योजनाएँ अधर में, और जनता उलझन में।
*लाड़ली बहना योजना लोकप्रियता की कीमत*
लाड़ली बहना योजना का उद्देश्य महिलाओं को आर्थिक सहायता देकर उनके जीवन में वित्तीय स्थिरता लाना था। योजना निश्चित रूप से लोकप्रिय हुई। लाखों महिलाओं को प्रतिमाह राशि मिलने लगी, जिसके चलते राजनीतिक प्रभाव भी दिखा। लेकिन यह भी सच है कि किसी भी सामाजिक सहायता योजना की सीमा होती है, और उसका बोझ अंततः सरकार की आय पर पड़ता है। मध्य प्रदेश सरकार का बजट पहले से ही कई बड़े खर्चों से दबा हुआ था कृषि सहायता, बुनियादी ढाँचा, कर्मचारियों के वेतन, पेंशन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी ज़रूरी मदों पर भारी राशि लगती है। इसके बीच प्रतिमाह करोड़ों रुपए की अतिरिक्त जिम्मेदारी उठाना वित्तीय संतुलन को डगमगा देता है। राजनीतिक लोकप्रियता की इस कीमत को चुकाने में आज हालत यह है कि सरकार कर्ज़ पर कर्ज़ ले रही है। और यह कर्ज़ केवल आंकड़ों में नहीं, बल्कि प्रशासनिक कामकाज, योजनाओं के क्रियान्वयन और दीर्घकालिक आर्थिक विकास सभी पर अपना प्रभाव डाल रहा है।
*मुफ्त की योजना बनाम आर्थिक आत्मनिर्भरता*
मुफ़्त की योजनाएँ जनता को तत्काल राहत देती हैं, लेकिन क्या वे उन्हें आत्मनिर्भर बनाती हैं? इसका उत्तर अक्सर “नहीं” होता है। असली सशक्तिकरण तब होता है जब व्यक्ति काम करके कमाए, अपनी क्षमता बढ़ाए और स्वयं आगे बढ़े। लेकिन जब मुफ्त की योजनाएँ ही जीवन का सहारा बन जाएँ, तो व्यक्ति की सक्रियता और आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा कम हो जाती है। कई सामाजिक विशेषज्ञों का मत है कि इस तरह की योजनाएँ गरीबों को ऊपर उठाने के बजाय उन्हें सहायता पर निर्भर बना देती हैं। और जब सरकारें इन्हीं योजनाओं को जारी रखने के लिए लगातार कर्ज़ लेती रहती हैं, तो इसका असर भविष्य की पीढ़ियों तक जाता है।
*शराब और राशन की विडंबना,समाज की वास्तविकता*
सरकार दारू के पैसे से मुफ्त राशन देती है और लोग वही राशन बेचकर फिर दारू पी लेते हैं”वह हमारे समाज की एक दुखद सच्चाई है। यह सिर्फ गरीबी नहीं, बल्कि सामाजिक सोच की समस्या है। सरकार शराब से कर वसूलती है, उस कर का बड़ा हिस्सा सामाजिक योजनाओं में लगाया जाता है। लेकिन जब गरीब परिवार अपने घर आए मुफ्त राशन को बेचकर उसी पैसे से शराब खरीद लेते हैं, तो यह न सिर्फ योजना की विफलता है बल्कि परिवार की आर्थिक-सामाजिक स्थिति को और खराब करने वाली समस्या भी है। ऐसे हालात में सरकार जितना अधिक मुफ्त देगी, परिवार उतना ही इस चक्र में फँसते चले जाएँगे। यह दुष्चक्र गरीबी को मिटाता नहीं, बल्कि उसे स्थायी बना देता है।

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