जनता ने जिसे जिताकर बनाया नेता वही फोन उठाने को तैयार नहीं, जीत का ताज पहनाकर पछता रही जनता, विकास के नाम पर कमीशनखोरी और क्षेत्र में मची लूट, कुछ नेताओं का ऐसा व्यक्तित्व की अधिकारी बात सुनने के लिए तैयार नहीं , एक नेता की अनेकों टोपी
जनता ने जिसे जिताकर बनाया नेता वही फोन उठाने को तैयार नहीं, जीत का ताज पहनाकर पछता रही जनता, विकास के नाम पर कमीशनखोरी और क्षेत्र में मची लूट, कुछ नेताओं का ऐसा व्यक्तित्व की अधिकारी बात सुनने के लिए तैयार नहीं , एक नेता की अनेकों टोपी
कटनी | लोकतंत्र में जनता की शक्ति सबसे बड़ी मानी जाती है। संविधान ने प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार दिया है कि वह अपने प्रतिनिधि को चुन सके और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से सरकार का निर्माण कर सके। जनता अपने खून-पसीने की कमाई और उम्मीदों की गठरी लेकर मतदान केंद्र पर जाती है ताकि जिस प्रतिनिधि को वह चुन रही है, वही उसकी आवाज़ बनेगा। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि चुनाव जीतने के बाद कई नेता जनता से दूर हो जाते हैं। वही जनता जिसने उन्हें वोट देकर "नेता" बनाया, उनकी समस्याएँ सुनने तक को तरस जाती है। फोन उठाना तक उन्हें भारी लगता है। आज हालात यह हैं कि न तो अधिकारी जनता की सुनते हैं, न नेता। जो नेता जनता की झोपड़ी में बैठकर चाय पीने के लिए तत्पर रहते थे, वही जीत का ताज पहनने के बाद आलीशान गाड़ियों और बड़े घरों की दीवारों के पीछे से जनता को देखने लगे हैं। परिणामस्वरूप जनता खुद को ठगा हुआ महसूस करती है और कहती है "आखिर हमने किसे जितवा दिया?"
*नेता और जनता के बीच की बढ़ती दूरी*
चुनाव प्रचार के दिनों में नेता हर घर-गली में दिखाई देते हैं। कोई अपने आपको जनता का "सच्चा सेवक" बताता है। कोई कहता है कि "आपका बेटा हूँ, हर दुख-सुख में साथ खड़ा रहूँगा। कोई झुककर पैर छूता है तो कोई सिर झुकाकर वोट मांगता है। लेकिन जैसे ही जीत की माला गले में पड़ती है, ये सभी वादे हवा हो जाते हैं। मोबाइल पर संपर्क करना कठिन हो जाता है। यदि कभी फोन उठ भी जाए तो यह कहकर टाल दिया जाता है कि "मीटिंग में हूँ, बाद में बात करूँगा।" जनता की छोटी-छोटी समस्याएँ जैसे बिजली का ट्रांसफार्मर बदलवाना, सड़क की मरम्मत करवाना, किसी गरीब को इलाज में मदद दिलाना महीनों तक लटक जाती हैं। धीरे-धीरे जनता समझ जाती है कि चुनाव जीतने के बाद नेताओं के लिए जनता की ज़रूरत नहीं रह जाती, उनकी असली ज़रूरत सिर्फ अगले चुनाव से कुछ महीने पहले पैदा होती है।
*अधिकारी और नेताओं की मिलीभगत*
क्षेत्र में काम कराने के लिए आम जनता को सीधे अधिकारियों से मिलना पड़ता है। लेकिन अक्सर अधिकारी भी आम जनता को गंभीरता से नहीं लेते। कारण यह है कि कई अफसर केवल नेताओं की बात ही सुनते हैं। और नेता जनता की नहीं सुनते। नतीजा यह होता है कि जनता की समस्याएँ "फाइलों" में दबकर रह जाती हैं। सड़क का काम हो या पुल का निर्माण, हैंडपंप की मरम्मत हो या आवास योजना की सूची बनाना, राशन कार्ड बनवाना हो या वृद्धा पेंशन दिलवाना, हर जगह जनता को अफसर-नेता की मिलीभगत वाली दीवार का सामना करना पड़ता है। अधिकारी कहता है "नेता जी से बात कीजिए।" और नेता फोन ही नहीं उठाते। इस तरह आम इंसान चकरघिन्नी बनकर रह जाता है।
*विकास के नाम पर कमीशनखोरी*
विकास कार्यों के लिए सरकार करोड़ों रुपये का बजट देती है, लेकिन ये रकम जनता तक पहुँचने से पहले "कट" हो जाती है। पंचायत से लेकर जिला स्तर तक काम के लिए पहले तय होता है कि किसे कितने प्रतिशत कमीशन मिलेगा। यदि कोई ठेकेदार कमीशन देने को तैयार नहीं, तो उसका बिल पास नहीं होता। जो सरपंच या सचिव नेता को खुश रखते हैं, उनके काम जल्दी मंजूर हो जाते हैं। इस चक्कर में जनता को वास्तविक विकास नहीं मिलता। सड़क आधी बनी रह जाती है, पुल पहले ही बरसात में टूट जाता है, स्कूलों की छत टपकने लगती है, और अस्पतालों में दवा का अभाव बना रहता है।
*एक नेता की अनेकों टोपी*
आजकल राजनीति में "एक आदमी कई चेहरे" का खेल खूब चल रहा है। एक ही नेता कई संगठनों, समितियों और विभागों में अपनी पकड़ बनाए रखता है। कहीं वह पंचायत का मार्गदर्शक होता है। कहीं वह सहकारी समिति का अध्यक्ष होता है। कहीं किसी मंडल का प्रभारी बन जाता है। तो कहीं स्वयंसेवी संस्था का संरक्षक भी बन बैठता है। इन सभी टोपियों का मकसद जनता की सेवा कम, अपने लिए सत्ता और धन का जाल बुनना होता है। ऐसे नेता जनता के बीच "हमदर्द" बनकर घूमते हैं, लेकिन असलियत में वे कमीशनखोरी की पूरी चेन का हिस्सा होते हैं।
*जनता का मोहभंग और पछतावा*
जब जनता देखती है कि वोट देकर जिसे जिताया, वही उसकी ओर ध्यान नहीं देता, तो स्वाभाविक रूप से जनता का विश्वास डगमगाता है। लोग कहते हैं, "हमसे गलती हो गई। गाँव की चौपालों पर चर्चा होती है कि "नेता जी का फोन उठता ही नहीं।" महिलाएँ शिकायत करती हैं कि "राशन की समस्या हल कराने में महीनों लग जाते हैं। युवा कहते हैं कि "रोज़गार के नाम पर सिर्फ आश्वासन मिला। धीरे-धीरे लोकतंत्र के प्रति मोहभंग होता है। जनता यह मानने लगती है कि चुनाव सिर्फ नेताओं के लिए होते हैं, जनता के लिए नहीं।
*क्षेत्र में मची लूट, नेता केवल निकाल रहे दांत*
जहाँ जनता चुप रहती है, वहाँ लूट का खेल और तेज़ हो जाता है। शिक्षा विभाग में किताबें और यूनिफॉर्म की सप्लाई में कमीशन।स्वास्थ्य विभाग में दवा और मशीनों की खरीद में भ्रष्टाचार। पंचायतों में मनरेगा और जल जीवन मिशन जैसे कामों में भारी घोटाले।किसानों की खाद और बीज की आपूर्ति में कटौती और काला बाज़ारी।जनता के नाम पर आने वाला पैसा नेताओं, अफसरों और ठेकेदारों की जेब में चला जाता है। नतीजा यह है कि गाँव-गाँव में आधे-अधूरे काम, टूटी सड़कें, सूखे हैंडपंप और अधूरी योजनाएँ दिखाई देती हैं। नेता जनता का सेवक होता है, मालिक नहीं। लेकिन आज तस्वीर उलटी है। जनता अपने वोट से नेताओं को सिर पर बिठाती है और वही नेता सत्ता की कुर्सी पर बैठकर जनता को अनसुना कर देते हैं। फोन उठाना तक उन्हें भारी लगता है। अधिकारियों के साथ उनकी मिलीभगत, विकास के नाम पर कमीशनखोरी और क्षेत्र में मची लूट लोकतंत्र की आत्मा को चोट पहुँचा रही है।
बिल्कुल सही लिखा आपने पत्रकार महोदय जी,, बहुत बहुत धन्यवाद जनता की आवाज उठाने के लिए
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